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भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना से स्वतंत्रता की दिशा में महत्त्वपूर्ण बदलाव

भारत का इतिहास सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक घटनाओं से भरा हुआ है। 1600 के दशक की शुरुआत में जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारतीय उपमहाद्वीप में कदम रखा, तब यहां कई महत्वपूर्ण बदलाव आए। इस ब्लॉग में हम ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना और इसके परिणामस्वरूप भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कैसे बदलाव आए, इस पर चर्चा करेंगे।


ईस्ट इण्डिया कम्पनी का आगमन


1608 ईस्वी में कैप्टन हाकिन्स भारत आए। उनकी यात्रा ने भारतीय व्यापार में अंग्रेजों की दिलचस्पी को बढ़ाया। इसके दो साल बाद, 1611 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मसूलीपट्टनम में अपनी पहली कोठी स्थापित की। यह भारतीय व्यापार में एक नई दिशा का संकेत था। इस समय कच्चे रेशे और मसालों के लिए भारत की मांग तेजी से बढ़ रही थी।


1613 में, कम्पनी ने सूरत में एक फैक्ट्री स्थापित की, जो कुछ ही वर्षों में व्यापार का एक महत्वपूर्ण स्थान बन गई। उस समय, कंपनी ने यहाँ की रेशम और कपड़े की उत्पादन क्षमता का लाभ उठाया।


मद्रास का अधिग्रहण


1639 ईस्वी में, अंग्रेजों ने मद्रास के एक स्थानीय राजा से अधिकार समझौता किया और इसे लीज पर ले लिया। यह स्थान ब्रिटिश व्यापार के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।


1640 में, अंग्रेजों ने चन्द्रगिरि के राजा पर विजय प्राप्त की और मद्रास में सेंट जॉर्ज किले का निर्माण किया। इस किले ने कम्पनी के व्यापार को और मजबूत किया और मद्रास को एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र बना दिया।


बम्बई का अधिग्रहण


1661 में, पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन और ब्रिटेन के सम्राट चार्ल्स-II के विवाह के साथ, बम्बई ब्रिटेन के नियंत्रण में आ गया। इसके बाद, सम्राट ने इसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी को वार्षिक किराए पर सौंपा।


1687 में, कम्पनी ने अपने मुख्यालय को सूरत से बम्बई में स्थानांतरित किया। बम्बई में व्यापारिक गतिविधियों के कारण यहाँ की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ी।


बंगाल और अन्य क्षेत्रों में व्यापार विस्तार


1651 में, बंगाल के सूबेदार शाहशुजा ने कम्पनी को व्यापार करने के लिए लाइसेंस दिया। इस लाइसेंस के माध्यम से कम्पनी ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में मुफ्त व्यापार करने की अनुमति प्राप्त की।


1686 में, अंग्रेजों ने हुगली पर हमला किया, लेकिन औरंगजेब के प्रतिरोध के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा। बाद में, जॉब चारनॉक ने समझौता करके कम्पनी के लिए स्थायी आधार स्थापित किया।


कोलकाता का विकास


1698 में, अजीम-उस-सान ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सूतानाती, गोविन्दपुर और कोलकाता की जमींदारी दी। कम्पनी ने वहाँ "फोर्ट विलियम" नामक किलाबंद कोठी का निर्माण किया। यह किला धीरे-धीरे राजधानी का रूप ले लिया और ब्रिटिश प्रशासन का मुख्यालय बना।


अंग्रेजों का शक्ति अर्जन


ईस्ट इण्डिया कम्पनी की गतिविधियों ने भारतीय भूगोल में महत्वपूर्ण बदलाव लाए। 1630 में, मैड्रिड की संधि ने अंग्रेजों और पुर्तगालियों के बीच व्यापारिक शत्रुता समाप्त कर दी।


1759 में, वेदरा के युद्ध में डचों की हार ने उनके भारत में प्रभाव को समाप्त कर दिया। इस स्थिति ने अंग्रेजों को भारतीय बाजार में एकाधिकार स्थापित करने का मौका दिया।


स्वतंत्रता की दिशा में महत्त्वपूर्ण बदलाव


ईस्ट इण्डिया कम्पनी की गतिविधियों ने भारतीय राजनीति और समाज पर प्रभाव डाला। कम्पनी ने भारतीय रजवाड़ों और साम्राज्यों में दरार पैदा की। ये असमानताएँ स्वतंत्रता संग्राम की नींव बनीं।


इसके अतिरिक्त, कम्पनी ने भारतीय संसाधनों का शोषण किया, जिससे जनता में असंतोष बढ़ा। भारतीय कृषि उत्पादन में कमी आई, जिससे 1770 के बंगाल के अकाल में लगभग 10 मिलियन लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। यह असंतोष बाद में संगठित स्वतंत्रता संग्राम में बदल गया।


अंग्रेजों के प्रभाव और उनके द्वारा लागू की गई नीतियों ने 1857 के विद्रोह को जन्म दिया, जिसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम का पहला बड़ा चरण माना जाता है।


समापन विचार


ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना ने भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण घटनाओं की श्रृंखला का आरंभ किया। यह न केवल व्यापार के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था, बल्कि इसने भारतीय रजवाड़ों, समाज और राजनीतिक धरातल को भी आकार दिया।


इसका परिणाम साम्राज्यवादी धारा के विकास में तो हुआ ही, साथ ही यह स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ भी था। आज हम यह अनुभव कर सकते हैं कि कैसे एक कम्पनी ने पूरी उपमहाद्वीप के भविष्य को प्रभावित किया।


ईस्ट इण्डिया कम्पनी का इतिहास हमें यह सिखाता है कि कैसे व्यापारिक दृष्टिकोण से शुरूआत करके एक छोटा समूह सैकड़ों वर्षों तक एक सम्पूर्ण राष्ट्र के भविष्य को आकार दे सकता है।

 
 
 

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