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अंग्रेजों की भारत विजय

          17वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से प्रवेश किया तथा भारत में अपने व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करने के लिए उसे अन्य यूरोपीय कम्पनियों तथा भारतीय राज्यों बंगाल, मैसूर, मराठा, सिंध, अवध, पंजाब तथा अन्य राज्यों के विरोध का सामना करना पड़ा। भारतीय राज्यों के आपसी मतभेदों और षड्यन्त्रों का फायदा उठाकर ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया।   

औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात कमजोर मुगल शासक

बहादुरशाह प्रथम (1707-12) - औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ गया, जिसमें उसका 63 वर्षीय पुत्र बहादुरशाह विजयी रहा। इसे शाहे-बे-खबर कहा जाता है। उसने समझौते एवं मेल-मिलाप की नीति अपनाई।  मराठों के प्रति भी मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखा तथा शाहूजी को रिहा कर दिया। उसने जजिया को भी समाप्त कर दिया। 1712 ई0 में अपनी मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य पुनः उत्तराधिकार का युद्ध प्रारम्भ हो गया।

जहांदार शाह (1712-13) - जहांदार शाह एक कमजोर, पतित सम्राट सिद्ध हुआ। इसे लम्पट मूर्ख कहा जाता है। इसके शासनकाल में प्रशासन जुल्फिकार खां के हाथों में था, जो वजीर बन गया था। जहांदार शाह लाल कुवारिं नामक एक वैश्या के ऊपर निर्भर था। उसने उसके रिश्तेदारों को उच्च पदों पर नियुक्त कर दिया। इसके समय में जनता त्रस्त हो गयी।  जहांदार शाह के भतीजे फर्रुखशियर ने सम्राट के पद का दावा किया तथा सैयद बन्धुओं की मदद से जहांदार शाह की हत्या कर सम्राट बन गया।

फर्रुखशियर (1713 ई0 - 1719 ई) - सैयद बन्धुओं अब्दुल्ला खां एवं हुसैन अली खां की मदद से फर्रुखशियर बादशाह बना। फर्रुखशियर के आदेश से जुल्फिकार खां को धोखा देकर मार डाला गया। उसने जयसिंह को "सवाई" की उपाधि दी। जोधपुर (मारवाड़) के राजा अजीत सिंह ने अपनी पुत्री का विवाह फर्रुखशियर से कर दिया। फर्रुखशियर ने मारवाड़ के अजीत सिंह, आमेर के जयसिंह तथा अनेक राजपूतों को प्रशासन में प्रभावशाली पद देकर अपनी ओर मिला लिया। इसके समय में ही बंदाबहादुर को दिल्ली में फांसी दे दिया गया। उसने जाट सरदार चूड़ामन के साथ दोस्ती कर ली। 1717 ई0 में इसने अंग्रेजों को एक शाही फरमान जारी कर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को व्यापार में छूट प्रदान किया। 1719 ई0 में सैयद बन्धुओं ने षड़यन्त्र कर इसकी हत्या कर दी। इसे घृणित कायर कहा जाता है। 

रफी-उद्-दरजात (1719) - यह सबसे कम समय तक शासन करने वाला मुगल शासक था। इसे भी सैयद बन्धुओं ने गद्दी पर बैठाया था। इसकी मृत्यु क्षयरोग (टी0बी0) से हुई। 

रफी-उद्-दौला (1719) - रफी-उद्-दरजात की मृत्यु के बाद सैयद बन्धुओं ने इसे गद्दी पर बैठाया। इसने "शाहजहां द्वितीय" की उपाधि धारण किया। इसके शासन काल में अजीत सिंह अपनी विधवा पुत्री को मुगल हरम से वापस ले गया। यह अफीम का आदी था तथा इसकी मृत्यु पेचिश नामक बीमारी के कारण हुई। 

मुहम्मद शाह (रौशन अख्तर) (1719 ई0 से 1748 ई0) - इसके विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण इसे रंगीला की उपाधि मिली थी। इसके काल में सैयद बन्धुओं का अंत हुआ तथा निजामुलमुल्क ने हैदराबाद राज्य की नींव डाली। सआदत खान ने अवध राज्य को स्वतन्त्र कर लिया। इसी प्रकार बंगाल, बिहार, उड़ीसा भी स्वतन्त्र हो गये। राजपूताना भी इसी के काल में स्वतन्त्र हो गये। फारस के शासक नादिरशाह ने 1739 ई0 में मुहम्मदशाह के समय में दिल्ली पर आक्रमण किया। बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठे केवल 500 घुड़सवार लेकर मार्च 1737 ई0 में दिल्ली पर आक्रमण कर दिये, परन्तु उनका किसी ने विरोध नही किया। मुहम्मदशाह के लम्बे शासनकाल में अधिकतर प्रान्त अपने आपको स्वतन्त्र कर लिया। 

अहमदशाह (1748 ई0 से 1754 ई0) - मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद उसका एकमात्र पुत्र अहमदशाह गद्दी पर बैठा। इसके शासनकाल में मुगल अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी तथा सेना को वेतन देने के लिए शाही सामान बिकने लगे, वेतन न मिलने के कारण कई जगहों पर सेना ने विद्रोह कर दिया। इसी के काल में 1748 ई0 में अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर आक्रमण कर दिया। 

आलमगीर द्वितीय (1754 ई0 से 1758 ई0) - प्लासी के युद्ध के समय यहीं मुगल सम्राट था। 

शाहआलम द्वितीय (1759 ई0 से 1806 ई0) - इसका नाम अलीगौहर था। इसी के समय पानीपत का तृतीय युद्ध 1761 ई0 (अहमद शाह अब्दाली व मराठों के मध्य) तथा बक्सर का युद्ध 1764 ई0 हुआ। बक्सर का युद्ध हारने के पश्चात अंग्रेजों से इलाहाबाद की संधि (1765 ई0) की और अंग्रेजों का पेंशनर बन गया। 

अकबर द्वितीय (1806 ई0-1837ई0) - इसने राजा राममोहन राय को राजा की उपाधि दी। इसी के समय में 1835 ई0 में मुगलों के सिक्के बन्द हो गये। 

बहादुर शाह द्वितीय (जफर) (1837 ई0-1857 ई0) - यह अंतिम मुगल बादशाह था। 1857 ई0 के विद्रोह के बाद इसे बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया। 

अंग्रेजो की बंगाल विजय

सभी यूरोपीय शक्तियों पर अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के बाद भारत पर अंग्रेजों ने अपने अधिपत्य स्थापित करने की शुरुआत बंगाल विजय से की। बंगाल पूर्व से ही अत्यन्त उपजाऊ एवं समृद्ध क्षेत्र था। दिल्ली से दूर होने के कारण बंगाल पर नियन्त्रण स्थापित करना अंग्रेजों के लिए अपेक्षाकृत आसान था, क्योंकि दिल्ली से दूर होने के कराण यहां पर मुगल नियन्त्रण कमजोर था। इसके अलावा दक्षिण में मैसूर तथा मराठों की बढ़ती शक्तियों को नियन्त्रित करने के लिए धन एवं संसाधनों की आवश्यकता की पूर्ति भी बंगाल विजय से की जा सकती थी। 

           इस प्रकार बंगाल की राजनीतिक अस्थिरता एवं बंगाल की आर्थिक समृद्धि ने अंग्रेजों को बंगाल पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। 

           अंग्रेजों ने बंगाल में प्रथम कोठी 1651 ई0 में सूबेदार शाहशुजा (शाहजहां का पुत्र) की अनुमति से बनाई तथा इसी वर्ष 1651 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मुगल सूबेदार शाह शुजा से 3000 रुपये वार्षिक शुल्क पर बंगाल, बिहार और उड़ीसा में व्यापार करने और कारखाने (factories) स्थापित करने की अनुमति मिली। 1698 ई0 में मुगल सूबेदार अजी मुशान ने कम्पनी को सूतानाती, कलिकाता एवं गोविन्दपुर की जमींदारी दे दी।

1717 ई0 की मुगल सम्राट फर्रुखशियर का फरमान - इस फरमान से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को मात्र 3000 रुपये वार्षिक कर के बदले में पूरे बंगाल (बंगाल, बिहार, उड़ीसा) में व्यापार करने पर कोई सीमा शुल्क (customs duty) नहीं देना था अर्थात वे केवल ₹3000 वार्षिक शुल्क देकर असीमित व्यापार कर सकते थे। इसके अलावा कंपनी को भारत के विभिन्न भागों में फैक्ट्री और गोदाम (godown) स्थापित करने  की अनुमति दी गई। बंगाल के नवाब मुर्शिद कुली खाँ ने इस फरमान का विरोध किया क्योंकि इससे मुगल खजाने को भारी राजस्व हानि हो रही थी। यही वजह थी कि बंगाल के नवाबों और कंपनी के बीच संघर्ष की नींव यहीं से रखी गई, जो अंततः प्लासी (1757) की लड़ाई तक पहुँच गई।

बंगाल के नवाब

मुर्शिद कुली खाँ (1717 ई0 - 1727 ई0) -  मुर्शिद कुली ख़ाँ को औरंगजेब द्वारा वर्ष 1700 में बंगाल का दीवान (राजस्व प्रमुख) नियुक्त किया था। मुर्शिद कुली खां ने वहां पर कर वसूली में सुधार किया, भ्रष्ट अमीरों और ज़मींदारों को नियंत्रित किया। उसने बंगाल में व्यवस्था, अनुशासन और वित्तीय मजबूती स्थापित की, जिससे जनता और व्यापारियों का उस पर विश्वास बढ़ा। उसने अपनी कार्यक्षमता से सूबे में इतनी पकड़ बना ली कि 1703 ई0 में राजधानी को ढाका से मुर्शिदाबाद (जो पहले मकसूदाबाद था) स्थानांतरित कर दिया और इसका नाम अपने नाम पर “मुर्शिदाबाद” रखा। इससे उनकी स्वतंत्र शक्ति और प्रतिष्ठा  बढ़ गई। मुग़ल सम्राट फ़र्रुख़सियर ने 1717 ई0 में मुर्शिद कुली खां को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का ‘नाजिम’ (नबाब या सूबेदार) नियुक्त किया। अब वह एक साथ दीवान (राजस्व प्रमुख) और नाजिम (प्रशासनिक/सैन्य प्रमुख) दोनों बन गया। अर्थात मुर्शिद कुली खां के पास अब राजस्व + प्रशासन + सैन्य तीनों शक्तियाँ एकत्र हो गईं — यानी वह स्वतंत्र रूप से पूरे सूबे का शासक बन गया।​ अब वह मुगल सम्राट के नाम मात्र के अधीन रहा। बंगाल में अर्ध-स्वायत्त ‘नबाबी शासन’ की शुरुआत यहीं से मानी जाती है। उसके शासन के दौरान बंगाल एक धनाढ्य और शक्तिशाली प्रांत बन गया। 

            1717 ई0 में जब जब मुग़ल सम्राट फर्रुख़सियर ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में कर-मुक्त व्यापार की छूट दी, मुर्शिद कुली खाँ ने इसका तीव्र विरोध किया क्योंकि: इससे बंगाल सरकार को राजस्व हानि होती थी एवं कंपनी की शक्ति बढ़ती जा रही थी।इसलिए उसने कंपनी से विभिन्न तरीकों से कर वसूलने की कोशिश की (जैसे दस्तकों का दुरुपयोग रोकना)। 1727 ई0 में इसकी मृत्यु हो गयी। इसकी मृत्यु के पश्चात इसका दामाद शुजाउद्दीन तत्पश्चात शुजाउद्दीन का पुत्र सरफराज 1739 ई0 में बंगाल के नवाब हुए।

अलीवर्दी खां (1740 ई0 से 1756 ई0) - गिरिया के युद्ध (1739 ई0) में सरफराज को पराजित कर अलीवर्दी खां नवाब बना। इसने मुगल सम्राट को 2 करोड़ रुपये घूस देकर अपने पद को स्थाई बनाया। इसने अंग्रेजों को कलकत्ता में और फ्रांसीसियों को चन्द्रनगर में किलेबंदी नही करने दी। मराठों ने इसे बहुत परेशान किया। अंततः इसने मराठा सरदार रघुजी से 1751 ई0 में संधि कर उड़ीसा प्रान्त तथा 12 लाख रुपये वार्षिक चौथ देने की बात स्वीकार कर ली। इसकी तीन पुत्रियां थीं, जिसमें एक ढाका, दूसरी पूर्णिया और तीसरी पटना के शासक से व्याही थीं। 1756 ई0 में अलवर्दी खां की मृत्यु के बाद इसके सबसे छोटी लड़की का पुत्र सिराजुद्दौला, जिसे अलीवर्दी खां ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था, बंगाल का नवाब बना। 

सिराजुद्दौला (1756 ई0 -1757 ई0) - गद्दी पर बैठने के समय सिराजुद्दौला के तीन प्रमुख शत्रु थे। इनमें पूर्णिया का नवाब शौकत जंग जो सिराजुद्दौला की दूसरी मौसी का बेटा, उसकी पहली मौसी घसीटी बेगम तथा अंग्रेज। सिराजुद्दौला के सत्ता में आने से अंग्रेज असंतुष्ट थे क्योंकि वह उनसे कड़ा व्यवहार करता था। घसीटी बेगम और शौकत जंग अंग्रेजों के लिए राजनीतिक मोहरे थे ताकि वे सिराज को कमजोर कर सकें। अंग्रेजों ने सिराजुद्दौला के विरोधियों (विशेषतः घसीटी बेगम व शौकत जंग) का समर्थन किया। शौकत जंग को सिराजुद्दौला ने मनिहारी के युद्ध (1756 ई0) में पराजित कर मार डाला तथा राज वल्लभ जो घसीटी बेगम का समर्थक एवं सिराजुद्दौला के लिए आंतरिक खतरा खतरा बन गया था, जिसे अंग्रेजों की कलकत्ता कौंसिल ने शरण दे रखी थी, को अंग्रेजों से वापस करने को कहा, परन्तु अंग्रेज नही माने। इस बीच यूरोप में 1756 ई0 में सप्त वर्षीय युद्ध छिड़ जाने के कारण भारत में अंग्रेज एवं फ्रांसीसी अपने गोदामों को दुर्गीकृत करना शुरु कर दिये। अंग्रेजों ने कलकत्ता तथा फ्रांसीसियों ने चन्द्रनगर की किलेबन्दी शुरु कर दी। नवाब के मना करने पर फ्रांसीसी मान गये किन्तु अंग्रेज नहीं माने।  4 जून 1756 ई0 को सिराजुद्दौला ने कासिम बाजार पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया तथा 15 जून 1756 ई0 को कलकत्ता पर आक्रमण कर दिया। पांच दिन के घेरे के बाद 20 जून को नवाब ने फोर्ट विलियम एवं कलकत्ता पर भी अधिकार कर कलकत्ता का नाम बदलकर अलीनगर कर दिया। 

ब्लैकहोल की घटना - एक अंग्रेज अधिकारी हालवेल द्वारा बतायी गयी मनगढ़ंत कहानी के अनुसार नवाब ने 20 जून 1756 ई0 की रात में 146 अंग्रेज बंदियों को जिसमें महिलायें एवं बच्चे भी शामिल थे, को 18 फीट लम्बे तथा 14 फीट चौड़े कोठरी में बन्द कर दिया। अगले दिन हालवेल सहित केवल 23 लोग ही जिन्दा बचे। यह घटना इतिहास में ब्लैकहोल की घटना के नाम से जानी जाती है। 

प्लासी के युद्ध की पृष्ठभूमि

कलकत्ता के पतन का समाचार मद्रास पहुंचने पर वहां से क्लाइव और वाटसन के नेतृत्व में एक सेना बंगाल पहुंची और क्लाइव के नेतृत्व में सिराजुद्दौला के विश्वासपात्र मानिकचन्द को घूस देकर 1757 ई0 में कलकत्ता पर अंग्रेजों ने पुनः अधिकार कर सिराजुद्दौला से अलीनगर की संधि कर ली। 

अलीनगर की संधि (9 फरवरी 1757 ई0) - यह संधि बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला एवं क्लाइव के मध्य हुई। इस संधि के द्वारा कम्पनी के क्षेत्राधिकार और विशेषाधिकार पुनः स्थापित हो गये। इस संधि के तहत कम्पनी को अपने स्थलों के दुर्गीकृत करने एवं सिक्के ढालने की अनुमति प्रदान की गयी।  नवाब से यह अस्थायी अलीनगर की संधि केवल धोखा देने और समय लेने का साधन बनी। इसके बाद अंग्रेजों ने षड्यंत्र शुरू कर दिया।

नवाब के विरुद्ध षड्यंत्र

अंग्रेजों ने कलकत्ता दोबारा जीतकर नवाब से अस्थायी संधि की जिसे अलीनगर की संधि कहा गया। लेकिन यह संधि केवल धोखा देने और समय लेने का साधन बनी। इसके बाद अंग्रेजों ने षड्यंत्र शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने नवाब के सेनापति मीर जाफर, बैंकर जगत सेठ, व्यापारी अमिचंद, और कुछ अन्य दरबारियों से गुप्त संधि की। योजना थी कि युद्ध में मीर जाफर नवाब का साथ नहीं देगा, बदले में उसे सत्ता से हटाकर नवाब बनाया जायेगा।

प्लासी का युद्ध (23 जून 1757 ई0) - प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को प्लासी नामक स्थान पर लड़ा गया। यह युद्ध बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ था। युद्ध का नेतृत्व ब्रिटिश पक्ष से रॉबर्ट क्लाइव ने किया, जबकि सिराजुद्दौला के पास विशाल सेना थी, जिसमें लगभग 50,000 सैनिक थे। इसके विपरीत अंग्रेजों की सेना बहुत छोटी थी, लेकिन उनके पक्ष में कूटनीति, चालाकी और विश्वासघात था। अलीनगर की संधि के बाद भी अंग्रेजों ने नवाब के दरबार में षड्यंत्र करना जारी रखा। मीर जाफर, जगत सेठ और अन्य दरबारियों को अपने पक्ष में कर लिया गया, जिससे नवाब की स्थिति कमजोर हो गई। युद्ध के दिन, भारी वर्षा के कारण नवाब की तोपें खराब हो गईं। मीर जाफर और उसकी सेना ने अंग्रेजों से मिले होने के कारण युद्ध में भाग नहीं लिया। इस विश्वासघात के कारण नवाब की सेना ने हार मान ली और सिराजुद्दौला युद्धभूमि से भाग गया। बाद में उसे पकड़कर मार डाला गया। अंग्रेजों ने मीर जाफर को नवाब बना दिया, लेकिन वह पूरी तरह से कंपनी का कठपुतली शासक बनकर रह गया।

प्लासी की विजय का परिणाम       

  प्लासी की विजय ने भारत में अंग्रेजी सत्ता की नींव रखी। इस युद्ध के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल की विशाल संपत्ति और राजनीतिक नियंत्रण प्राप्त हुआ। यह युद्ध भारतीय इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था क्योंकि इसके बाद भारत में अंग्रेजों के वर्चस्व का युग आरंभ हो गया। यह न केवल एक सैन्य विजय थी, बल्कि एक गहरे राजनीतिक और कूटनीतिक षड्यंत्र का परिणाम भी था। इस युद्ध के पश्चात अंग्रेजों की स्थिति केवल बंगाल तक सीमित नहीं रही, बल्कि उन्होंने धीरे-धीरे भारत के अन्य हिस्सों में भी अपना राजनीतिक व सैन्य प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया। कंपनी को व्यापार में विशेषाधिकार प्राप्त हुए, कर संग्रह की शक्तियाँ मिलीं और भारतीय शासकों में भय का वातावरण उत्पन्न हुआ।

इस प्रकार, प्लासी के युद्ध का परिणाम भारत के औपनिवेशिक इतिहास में एक निर्णायक मोड़ सिद्ध हुआ, जहाँ से अंग्रेजों के बढ़ते प्रभुत्व और भारतीय स्वतंत्रता के क्रमशः ह्रास की शुरुआत हुई। यह युद्ध भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की औपचारिक शुरुआत माना जाता है।

मीर जाफर (1757 ई0 से 1760 ई0)-

            अंग्रेजों ने मीर जाफर को प्लासी की सफलता के बाद बंगाल का नवाब बना दिया। इस बीच फरवरी 1760 ई0 में क्लाइव इंग्लैण्ड वापस चला गया। हालवेल डचों को संरक्षण देने का आरोप मीरजाफर पर लगया किन्तु नवाब का मुख्य अपराध अंग्रेजों की लगातार बढ़ती हुईं मांग को पूरा न कर पाना था।  क्लाइव के जाने के बाद हेनरी वेन्सिटार्ट बंगाल का गवर्नर बना। उसने नवाब बदलने का निश्चय किया और इसके लिए मीरकासिम से समझौता हुआ, जिसमें उसे नवाब बनाने के बदले बर्दमान, मिदनापुर और चटगांव की दीवानी कम्पनी को देनी थी। 

              इस प्रकार मीरजाफर पर डचों से सम्बन्ध का आरोप लगाकर उसे अपदस्थ कर दिया गया और मीरकासिम को बंगाल का नवाब बनाया गया।

 मीरकासिम (1760 ई0 से 1763 ई0) - अलीवर्दी खां के बाद बंगाल का दूसरा सबसे योग्य नवाब मीरकासिम था। नवाब बनने के बाद उसने अपनी राजधारी मुर्शिदाबाद से मुंगेर स्थानान्तरित कर ली, क्योंकि वह मुर्शिदाबाद के षड्यन्त्रात्मक वातावरण से दूर रहना चाहता था। उसने बंगाल की आर्थिक दुर्दशा सुधारने एवं अंग्रेजों द्वारा दस्तखतों के दुरुपयोग को रोकने के लिए आंतरिक व्यापार पर लगे सभी करों को समाप्त कर दिया, जिससे अंग्रेजों के विशेषाधिकार स्वतः ही समाप्त हो गये क्योंकि अब सभी भारतीय एवं विदेशी व्यापारी एक ही स्तर पर आ गये। परिणामस्वरुप अंग्रेजों ने मीरकासिम को हटाकर मीरजाफर को पुनः नवाब बना दिया एवं मीरकासिम के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

बक्सर का युद्ध

मीरकासिम अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सहायता मांगी, उस समय मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय भी वहीं था। इस प्रकार तीनों के मध्य समझौते के तहत संयुक्त सैना ने पटना के पास बक्सर में डेरा डाला। 22 अक्टूबर 1764 ई0 को हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने इस संयुक्त सेना को पराजित कर दिया। मीरकासिम दिल्ली की ओर भागा और वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। शुजाउद्दौला ने हारने के पश्चात मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय के साथ आत्मसमर्पण कर दिया।

           इसी बीच 1765 में बंगाल के वर्तमान नवाब मीरजाफर की मृत्यु हो गयी। उसके बाद अंग्रेजों ने उसके अल्प वयस्क पुत्र नजमुद्दौला को बंगाल का नवाब बनाया गया। इसके समय अंग्रेजों ने लगभग सभी अधिकार अपने पास रख लिये। बक्सर के युद्ध के बाद क्लाइव पुनः ब्रिटिश गवर्नर बनकर भारत आया उसने मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय तथा अवध के नवाब शुजाउद्दौला से इलाहाबाद की दो अलग-अलग संधि कर ली। 

इलाहाबाद की प्रथम संधि (12 अगस्त 1765 ई0) - 

संधिकर्ता - (मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय एवं राबर्ट क्लाइव)

संधि की शर्तें निम्नवत थीं-

1. मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय ने बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इण्डिया कंपनी को दे दी।

2. अवध के नवाब से कड़ा एवं इलाहाबाद का जिला लेकर मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय को दे दिया गया। 

3. मुगल सम्राट के लिए 26 लाख रुपये प्रतिवर्ष पेंशन  स्वीकार किया गया। 

4. कम्पनी को उत्तरी सरकार की जागीर मिली।

इलाहाबाद की द्वितीय संधि (16 अगस्त 1765)

संधिकर्ता - (अवध के नवाब शुजाउद्दौला एवं राबर्ट क्लाइव)

संधि की शर्ते निम्नवत थीं-

1. कंपनी को 50 लाख रुपये तथा चुनार का दुर्ग अवध के नवाब से प्राप्त हुआ।

2. इलाहाबाद एवं कड़ा को छोड़कर शेष क्षेत्र अवध के नवाब को वापस प्राप्त हो गया। 

3. कंपनी द्वारा नवाब के खर्च पर एक अंग्रेजी सेना अवध में रखी गयी।

4. कंपनी को अवध में करमुक्त व्यापार करने की सुविधा प्राप्त हुई।

5. वाराणसी एवं गाजीपुर में अंग्रेजों के संरक्षण में राजा बलवन्त सिंह को अधिकार दिया गया।

बंगाल में द्वैध शासन -

             इलाहाबाद की संधि द्वारा बंगाल में द्वैध शासन (Dual Government) की शुरुआत एक विशेष प्रकार की शासन व्यवस्था थी, जिसमें शासन की दोहरी प्रणाली, जिसमें एक ही प्रदेश में दो शासक शक्तियाँ। एक नाममात्र की सत्ता रखती है (प्रतीकात्मक), दूसरी वास्तविक सत्ता (वास्तविक नियंत्रण) रखती है, का जन्म हुआ। 

             बक्सर की लड़ाई (1764) में मीर कासिम, शुजा-उद-दौला और मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय की हार के बाद, 1765 में मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को 'दीवानी' (राजस्व संग्रह का अधिकार) सौंप दी लेकिन प्रशासनिक व्यवस्था और कानून व्यवस्था की ज़िम्मेदारी (जिसे 'निजामत' कहते हैं) बंगाल के नवाब के पास बनी रही।

बंगाल में द्वैध शासन का उद्देश्य - ब्रिटिश कंपनी अत्यधिक राजस्व प्राप्त करना चाहती थी, लेकिन बिना सीधे शासन की जिम्मेदारी उठाए। इससे वे लाभ कमा सकती थीं, लेकिन प्रशासनिक गलतियों के लिए नवाब जिम्मेदार बनते थे।

बंगाल में द्वैध शासन का परिणाम -  

प्रशासन में भ्रम: दो अलग-अलग सत्ताओं की वजह से समन्वय की कमी रही।

जनता की दुर्दशा: कर वसूली कठोर थी, लेकिन जनता को कोई राहत नहीं मिली।

नवाब शक्तिहीन: नवाब केवल नाम के शासक रह गए, उनके पास कोई प्रभाव नहीं था।

भ्रष्टाचार और अराजकता: ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी मनमानी करने लगे।

द्वैध शासन के दूरगामी परिणामद्वैध शासन के दूरगामी परिणाम भारत के राजनीतिक और आर्थिक भविष्य के लिए अत्यंत निर्णायक सिद्ध हुए। ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व वसूली के माध्यम से अपना आर्थिक आधार मजबूत किया, जिससे उसकी सैन्य और राजनीतिक शक्ति में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। नवाबों की कमजोरी का लाभ उठाकर कंपनी ने राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू किया और धीरे-धीरे प्रशासनिक तंत्र पर भी नियंत्रण स्थापित कर लिया। अंततः 1772 में द्वैध शासन को समाप्त कर कंपनी ने बंगाल में सीधा शासन लागू कर दिया। यह मॉडल इतना सफल रहा कि कंपनी ने इसे अन्य भारतीय राज्यों में भी अपनाने की प्रेरणा ली, जिससे ब्रिटिश उपनिवेशवाद की नींव पूरे भारत में मजबूती से स्थापित हो गई।

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